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Showing posts from 2011

self-confidence !!

The business executive was deep in debt and could see no way out. Creditors were closing in on him. Suppliers were demanding payment. He sat on the park bench, head in hands, wondering if anything could save his company from bankruptcy.      Suddenly an old man appeared before him. "I can see that something is troubling you," he said. After listening to the executive's woes, the old man said, "I believe I can help you."      He asked the man his name, wrote out a check, and pushed it into his hand saying, "Take this money. Meet me here exactly one year from today, and you can pay me back at that time." The business executive saw in his hand a check for $500,000, signed by John D. Rockefeller, then one of the richest men in the world!      "I can erase my money worries in an instant!" he realized. But instead, the executive decided to put the un-cashed check in his safe. Just knowing it was there might give him the strength to work out a way t

आदम गोंडवी को नमन !!!

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हिन्दू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िये अपनी कुरसी के लिए जज्बात को मत छेड़िये हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है दफ़्न है जो बात, अब उस बात को मत छेड़िये ... ग़र ग़लतियाँ बाबर की थीं; जुम्मन का घर फिर क्यों जले ऐसे नाजुक वक्त में हालात को मत छेड़िये हैं कहाँ हिटलर, हलाकू, जार या चंगेज़ ख़ाँ मिट गये सब, क़ौम की औक़ात को मत छेड़िये छेड़िये इक जंग, मिल-जुल कर गरीबी के ख़िलाफ़ दोस्त, मेरे मजहबी नग्मात को मत छेड़िये
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 सदा बहार, अत्तयंत सकारात्मक सोंच वाले, तथा सिनेमाई जगत में अपनी एक अलग शैली के लिए मशहूर अभिनेता देव आनंद साहब नहीं रहे. उनकी फिल्मे जहाँ एक ओरे उनके बेमिशाल अभिनय  के लिए जानी जाती है वही दूसरी और मनमोहक गीत के लिए भी. भगवन उनको शांति दे और परिवार वालों को इस शोक्दायी पल से उबरने की शक्ती दे.

हिटलर के अनुभव भारतीय सन्दर्भों में !!

हिटलर की जीवनी "मेरा संघर्ष" पढ़ी उसके बहुत सारे अनुभव भारतीय सन्दर्भों एकदम फिट बैठते है. संसदिये लोकतंत्र के बारे में उसकी एक टिप्पणी देखें "संसदिये प्रणाली में ऊपर बैठा नेता यह जनता है दुबारा पदासीन होने का मौका मिले न मिले अतः वह कुर्सी से चिपकने के सरे तिकड़म आजमाता है, वहीं दूसरी तरफ नीचे के नेता गन उसको महा धूर्त, तिकडमी, पद लोभी आदि कहते है और किसे भी तरह उसको पद्चुत करने और अपना मार्ग प्रशस्त करने में लगे रहते है. एसे में जनहित, देशहित आदि सिर्फ शब्दालंकार बन कर रह जाते है. सही मायने में कोई जनप्रतिनिधि न होकर अपना ही हित साधने में लगे रहते है....."                                 भारतीय सन्दर्भ में कितना सच है उसका अनुभव. संसदिये लोकतंत्र के औचित्य पर एक बहस हो सकती है. और हिटलर का उपरोक्त अनुभावोप्रांत किया गया कार्य अनुचित हो सकता है. तो भी क्या हम उपरोक्त बैटन की सत्यता से इंकार कर सकते है......मीडिया से सम्बंधित एसी ही उसकी एक मजे दार टिप्पणी देखे..."प्रेस में सब दलाल भरे होते है....वे नीच व्यक्तियों को महिमा मंडित करते है और किसी भी अंजन व्यक्त

मैं नीर भरी दुख की बदली!

मैं नीर भरी दुख की बदली! स्पन्दन में चिर निस्पन्द बसा क्रन्दन में आहत विश्व हँसा नयनों में दीपक से जलते, पलकों में निर्झारिणी मचली! मेरा पग-पग संगीत भरा श्वासों से स्वप्न-पराग झरा नभ के नव रंग बुनते दुकूल छाया में मलय-बयार पली। मैं क्षितिज-भृकुटि पर घिर धूमिल चिन्ता का भार बनी अविरल रज-कण पर जल-कण हो बरसी, नव जीवन-अंकुर बन निकली! पथ को न मलिन करता आना पथ-चिह्न न दे जाता जाना; सुधि मेरे आगन की जग में सुख की सिहरन हो अन्त खिली! विस्तृत नभ का कोई कोना मेरा न कभी अपना होना, परिचय इतना, इतिहास यही- उमड़ी कल थी, मिट आज चली!

संघ से भयभीत टीम अन्ना ?

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कभी अन्ना कहते है की वे संघ के किसी पदाधिकारी का नाम तक नहीं जानते, और संघ का कोई कार्य करता उनके आन्दोलन में शामिल नहीं था. कभी कश्मीर मुद्दे पर तमाचा खा चुके प्रशांत कहते है की संघ उन्हें समर्थन दे इस्ससे उन्हें परहेज है.....और फिर कहते है की परहेज नहीं है... प्रश्न यह है की अन्ना का आन्दोलन राष्ट्रीय है या वैक्तिक? क्या संघी विचारधारा के लोग भारतीय नागरिक नहीं है? और यदि अन्ना राष्ट्रीय आन्दोलन चला रहे है तो कौन संघी है कौन बजरंगी है, कौन भाजपाई कौन कांग्रेसी?? कोई भी व्यक्ति पहले भारतीये है, पहले राष्ट्र का है बाद में किसी पार्टी या बिचारधरा का. और इस हिसाब से संघ या किसी अन्य संघटन के कार्य करता का पूरा अधिकार है की वे किसी भी राष्ट्रीय मुद्दे के आन्दोलन में भाग लें और कार्य करें. यदि अन्ना या उनकी टीम ये समझती है की संघ से अपरिचय दिखा कर वे किसे उजले कुरते वाली जमात में बने रहेंगे तो वे भयानक भूल की तरफ है....और निश्चय ही आत्म प्रवंचन और भटकाव की तरफ बढ़ रहे है..... राष्ट्रीय आन्दोलन कभी भी जाती सम्प्रदाए या वैक्तिक वैचारिक सीमावो  से बांध कर नहीं चलते...यदि हम जाती और संप्रदाय 

पर उपदेश कुशल बहुतेरे........

आज के हालात पर  ओशो का कथन, मालूम नहीं कहाँ पढ़ा था, स्मरण हो रहा है ..."इतनी भक्ती, इतनी पूजा, इतने यात्राये, इतने घनघोर प्रवचन, इतने सम्प्रदाए और सन्यासी.......फिर इतनी अशांति, इतना अनाचार, दुराचार, भ्रस्ताचार, व्यभिचार, इतना पाप.......या तो हमरी प्रार्थनाएं सच्ची नहीं है या फिर ईस्वर का अस्तित्त्व ही नहीं है......." कितना सार्थक है...                                                                       टी. वी. चैनलों. पर लगातार चल रहे प्रवचन, पञ्च सितारा महात्मा जी और पंडाल ....करोनो अनुयायी.....और देश की  दशा और दिशा ???  हर भ्रस्ता चारी कही न कही तथाकथित महात्माओं का हस्त प्राप्त है....                                                                  कभी कभी तो लगता है जैसे भ्रस्ता चार हमारी विरासत में है. मंदिरों में इतने चढ़ावे....???और हजारों भुखमरी के शेकर....हजारों...कुपोषण के शिकार....अशिक्षा का अंधकार....सब इस महँ देश में एक ही धरती पर एक साथ.   किस काम की  हमारी श्रधा और आध्यात्मिकता...??? सगे भाई और कुटुम्बी दरिद्यता का अभिशाप भुगतने को मजबूर और हम दान पुण्य  औ
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शत शत नमन !! भगवन वर्तमान कंग्रेस्सियों को सदबूधी दें .

अन्ना हजारे सही या गलत?

आज अन्ना हजारे से विरोध रखने वाले सबसे ज्यादा अगर किसी बात पर बहस कर रहे है तो  उनके  अनशन के औचित्य पर और उसके सही या गलत होने पर. राहुल गांधी (तथा कथित युवावों के नेता, भारत के भविष्य? कांग्रेसी  चाटुकारों के जबान में) ने तो अन्ना के अनशन को लोकतंत्र के लिए बड़ा खतरा करार दे दिया. शायद राहुल गाँधी की समझ लोकतंत्र के बारे में यही है? क्या लोकतंत्र जनांदोलनो से खतरे में पद सकता है? लोक तंत्र किसका है और किसके लिए है? क्या चंद चुने हुए लोग समूची जनता के  भाग्यविधाता हो सकते है? अपनी बात कलो शांति पूर्ण तरीके से व्यक्त करने को क्या राष्ट्र विरोधी और लोक तंत्र विरोधी कहेंगे? शायद राहुल की सोंच यही हो. हो भी क्यों न जिसने गरीबी के दर्शन न किये हो, इतना बड़ा राष्ट्र विरासत(?) में मिल गया हो, अरबों रूपये के ट्रस्ट हो, उसकी सोंच क्या होगी?. राहुल को अपनी सर्कार की डकैती नहीं दिखती, उसपर उनके कोई विचार नहीं है, किसी घोटाले से उनका मन आहत नहीं होता, किसानो के आत्महत्या करने, महगाई के बेतहासा बदने, और गरीबों के निरंतर गरीब होने पर उनके पास कोई विचार नहीं है, मनमोहन जैसे निकम्मे व्यक्ति की वोट मे

सिंहासन खाली करो कि जनता आती है / रामधारी सिंह "दिनकर"

सदियों की ठंढी-बुझी राख सुगबुगा उठी, मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है; दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो, सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। जनता?हां,मिट्टी की अबोध मूरतें वही, जाडे-पाले की कसक सदा सहनेवाली, जब अंग-अंग में लगे सांप हो चुस रहे तब भी न कभी मुंह खोल दर्द कहनेवाली। जनता?हां,लंबी - बडी जीभ की वही कसम, "जनता,सचमुच ही, बडी वेदना सहती है।" "सो ठीक,मगर,आखिर,इस पर जनमत क्या है?" 'है प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है?" मानो,जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं, जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में; अथवा कोई दूधमुंही जिसे बहलाने के जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में। लेकिन होता भूडोल, बवंडर उठते हैं, जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढाती है; दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो, सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। हुंकारों से महलों की नींव उखड़ जाती, सांसों के बल से ताज हवा में उड़ता है, जनता की रोके राह,समय में ताव कहां? वह जिधर चाहती,काल उधर ही मुड़ता है। अब्दों, शताब्दियों, सहस्त्राब्द का अंधकार बीता;गवाक्ष अंबर के दहके जाते हैं; यह और

आशा का दीपक / रामधारी सिंह "दिनकर"

वह प्रदीप जो दीख रहा है झिलमिल दूर नही है थक कर बैठ गये क्या भाई मन्जिल दूर नही है चिन्गारी बन गयी लहू की बून्द गिरी जो पग से चमक रहे पीछे मुड देखो चरण-चिनह जगमग से बाकी होश तभी तक, जब तक जलता तूर नही है थक कर बैठ गये क्या भाई मन्जिल दूर नही है अपनी हड्डी की मशाल से हृदय चीरते तम का, सारी रात चले तुम दुख झेलते कुलिश का। एक खेय है शेष, किसी विध पार उसे कर जाओ; वह देखो, उस पार चमकता है मन्दिर प्रियतम का। आकर इतना पास फिरे, वह सच्चा शूर नहीं है; थककर बैठ गये क्या भाई! मंज़िल दूर नहीं है। दिशा दीप्त हो उठी प्राप्त कर पुण्य-प्रकाश तुम्हारा, लिखा जा चुका अनल-अक्षरों में इतिहास तुम्हारा। जिस मिट्टी ने लहू पिया, वह फूल खिलाएगी ही, अम्बर पर घन बन छाएगा ही उच्छ्वास तुम्हारा। और अधिक ले जाँच, देवता इतन क्रूर नहीं है। थककर बैठ गये क्या भाई! मंज़िल दूर नहीं है।

आग की भीख / रामधारी सिंह "दिनकर"

धुँधली हुईं दिशाएँ, छाने लगा कुहासा,  कुचली हुई शिखा से आने लगा धुआँ-सा। कोई मुझे बता दे, क्या आज हो रहा है; मुँह को छिपा तिमिर में क्यों तेज रो रहा है? दाता, पुकार मेरी, संदीप्ति को जिला दे, बुझती हुई शिखा को संजीवनी पिला दे। प्यारे स्वदेश के हित अंगार माँगता हूँ। चढ़ती जवानियों का श्रृंगार मांगता हूँ। बेचैन हैं हवाएँ, सब ओर बेकली है, कोई नहीं बताता, किश्ती किधर चली है? मँझधार है, भँवर है या पास है किनारा? यह नाश आ रहा या सौभाग्य का सितारा? आकाश पर अनल से लिख दे अदृष्ट मेरा, भगवान, इस तरी को भरमा न दे अँधेरा। तम-बेधिनी किरण का संधान माँगता हूँ। ध्रुव की कठिन घड़ी में पहचान माँगता हूँ। आगे पहाड़ को पा धारा रुकी हुई है, बल-पुँज केसरी की ग्रीवा झुकी हुई है, अग्निस्फुलिंग रज का, बुझ ढेर हो रहा है, है रो रही जवानी, अन्धेर हो रहा है। निर्वाक है हिमालय, गंगा डरी हुई है। निस्तब्धता निशा की दिन में भरी हुई है। पंचास्य-नाद भीषण, विकराल माँगता हूँ। जड़ता-विनाश को फिर भूचाल माँगता हूँ। मन की बँधी उमंगें असहाय जल रही हैं, अरमान-आरज़ू की लाशें निकल रही हैं। भीगी-खुली पल
जापान में आई विपदा में ईश्वर सभी जापानी बंधुओं की मदद करें.!!

ज़िंदगी बदल रही है !!

जब मैं छोटा था शायद ज़िंदगी बदल रही है!! जब मैं छोटा था, शायद दुनिया बहुत बड़ी हुआ करती थी.. मुझे याद है मेरे घर से “स्कूल” तक का वो रास्ता, क्या क्या नहीं था वहां, चाट के ठेले, जलेबी की दुकान, बर्फ के गोले, सब कुछ, अब वहां “मोबाइल शॉप”, “विडियो पार्लर” हैं, फिर भी सब सूना है.. शायद अब दुनिया सिमट रही है… जब मैं छोटा था, शायद शामें बहुत लम्बी हुआ करती थीं… मैं हाथ में पतंग की डोर पकड़े, घंटों उड़ा करता था, वो लम्बी “साइकिल रेस”, वो बचपन के खेल, वो हर शाम थक के चूर हो जाना, अब शाम नहीं होती, दिन ढलता है और सीधे रात हो जाती है. शायद वक्त सिमट रहा है.. जब मैं छोटा था, शायद दोस्ती बहुत गहरी हुआ करती थी, दिन भर वो हुजूम बनाकर खेलना, वो दोस्तों के घर का खाना, वो लड़कियों की बातें, वो साथ रोना… अब भी मेरे कई दोस्त हैं, पर दोस्ती जाने कहाँ है, जब भी “traffic signal” पे मिलते हैं “Hi” हो जाती है, और अपने अपने रास्ते चल देते हैं, होली, दीवाली, जन्मदिन, नए साल पर बस SMS आ जाते हैं, शायद अब रिश्ते बदल रहें हैं.. जब मैं छोटा था, तब खेल भी अजीब हुआ करते थे, छु

मधुशाला - madhushala

॥हरिवंश राय बच्चन कृत मधुशाला॥ मृदु भावों के अंगूरों की आज बना लाया हाला प्रियतम, अपने ही हाथों से आज पिलाऊँगा प्याला पहले भोग लगा लूँ तेरा, फ़िर प्रसाद जग पाएगा सबसे पहले तेरा स्वागत, करती मेरी मधुशाला॥१॥ प्यास तुझे तो, विश्व तपाकर पूणर् निकालूँगा हाला एक पाँव से साकी बनकर नाचूँगा लेकर प्याला जीवन की मधुता तो तेरे ऊपर कब का वार चुका आज निछावर कर दूँगा मैं, तुझपर जग की मधुशाला॥२॥ भावुकता अंगूर लता से खींच कल्पना की हाला कवि साकी बनकर आया है भरकर कविता का प्याला कभी न कण- भर ख़ाली होगा लाख पिएँ, दो लाख पिएँ! पाठकगण हैं पीनेवाले, पुस्तक मेरी मधुशाला॥३॥ मदिरालय जाने को घर से चलता है पीनेवाला ' किस पथ से जाऊँ? ' असमंजस में है वह भोलाभाला अलग- अलग पथ बतलाते सब, पर मैं यह बतलाता हूँ - ' राह पकड़ तू एक चला चल, पा जाएगा मधुशाला॥४॥ चलने ही चलने में कितना जीवन, हाय, बिता डाला! ' दूर अभी है ' , पर, कहता है हर पथ बतलानेवाला हिम्मत है न बढ़ूँ आगे, साहस है न फ़िरूँ पीछे किंकतर्व्यविमूढ़ मुझे कर दूर खड़ी है मधुशाला॥५॥ मुख से तू अविरत कहता जा मधु, मदिरा,

नीड़ का निर्माण फिर फिर - Need ka nirman fir fir

यह कविता मुझे हमेशा उर्जा देती हाय : नीड़ का निर्माण फिर फिर, नेह का आह्वान फिर फिर यह उठी आंधी की नभ में छा गया सहसा अँधेरा धुलिधुसर बादलों ने धरती को इस भाँती घेरा रात सा दिन हो गया फिर रात आई और काली लग रहा था अब न होगा इस निशा का फिर सवेरा रात के उत्पात-भय से भीत जन जन भीत कण कण किन्तु प्राची से उषा की मोहिनी मुस्कान फिर फिर नीड़ का निर्माण फिर फिर ..... क्रुद्ध नभ के वज्रदंतो में उषा है मुस्कुराती घोर-गर्जनमय गगन ने कंठ में खग-पंक्ति गाती एक चिडिया चोंच में तिनका लिए जो जा रही हैं वह सहज में ही पवन उनचास को नीचा दिखाती नाश के भय से कभी दबता नहीं निर्माण का सुख प्रलय की निस्तब्धता में सृष्टि का नवगान फिर फिर नीड़ का निर्माण फिर फिर.... - हरिवंशराय बच्चन

बाबा राम देव - सही या गलत ??

बाबा राम देव के भ्रष्टाचार विरोध और काले धन के वापसी के आन्दोलन पर बहुत लोगों की राय है की एक सन्यासी को राजनीतिक पैंतरों से दूर रहना चाहिए. शायद दूसरी दुनिया में रहने वाले ये लोग भारतीय सन्यासी परंपरा के बारे में नितांत अपरिचित है. और शायद ये सन्यासियों को गुफा कन्दरा में रहने वाला जीव समझते है?. एसे सब लोगो से मेरा एक ही विनम्र अनुरोध है के समग्रता से स्वामी विवेकानंद को पड़े. तब उनको समझ में ए गा की सन्यास परंपरा का उदय ही इन्ही कार्यों के लिए हुआ था. एक सन्यासी जो अपने पराये के प्रपंचो दूर है. उससे अधिक लोक मंगल कौन शोंच सकलता है? और महाकवि तुलसीदास को मने तो "संत वही जो लोक मंगल के लिए व्यग्र हो' क्या स्वामी रामदेव जी की यह व्यग्रता लोक मंगल के लिए नहीं है?? क्या कला धन वापस आया तो सिर्फ उन्हें व्यक्तिगत लाभ होगा? क्या भ्रष्टाचारियों से उनकी निजी दुश्मनी है?? भगवन स्वामी राम देव को उनके मार्ग में अनंत शक्तियों से उनको आप्लावित करें. और हम सब लोगो को सदबुधि दें.  महेश. 

क्या कांग्रेस भ्रष्टआचार खत्म करने के लिए संकल्पित है???

शायद यह सबसे बड़ा प्रश्न है जिसका उत्तर देना कोई कंग्रेस्सी नहीं चाहता. भारतीय इतिहास के सबसे कमजोर और निकम्मे प्रधान मंत्री के रूप में मनमोहन सिंह जे भारत और उसकी जनता के लिए कांग्रेस द्वारा थोपी गयी विडम्बना रहे है. अगर मनमोहन सर्कार भ्रस्ताचार के मुद्दे और काले धन के मुद्दे पर इतनी ही संकल्प बद्ध है तो योग ऋषी बाबा राम देव जी का विरोध क्यों??उन्होंने तो अपने किसी भी आयोजन में भ. ज. प्. का नाम तक नहीं लिया है. उनका एक मात्र विरोध बड़ते भ्रष्टाचार और काले धन की वापसी को लेकर है. पर इस पर कांग्रेस को मिर्च क्यों कर लग रही है?? शायद इसी लिए क्योंकि वे सारे कालाबाजारी या तो कंग्रेस्सी है या फिर कांग्रेस की च्च्त्रछाया में है. मनमोहन जी  को  अगर प्रधानमंत्री जैसा महत्वपूर्ण पद मिला तो यह देश का सौभाग्य नहीं बल्कि उनका सौभाग्य था की देश ने उनको चुना. किन्तु यह घोर विडम्बना थी जिसकी मार हम लम्बे अरसे तक झेलें गे.  बहुत निस्तेज और कबूतरी चेहरे वाले मनमोहन सिंह जी को देख कर मन में घोर अवसाद पैदा होता है... आखिर सरवोछ पद पर आसीन यह व्यक्ति देश को किस दिशा में ले जा रहा है?? इतिहास आखिर मनमोहन