सिंहासन खाली करो कि जनता आती है / रामधारी सिंह "दिनकर"
सदियों की ठंढी-बुझी राख सुगबुगा उठी, मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है; दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो, सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। जनता?हां,मिट्टी की अबोध मूरतें वही, जाडे-पाले की कसक सदा सहनेवाली, जब अंग-अंग में लगे सांप हो चुस रहे तब भी न कभी मुंह खोल दर्द कहनेवाली। जनता?हां,लंबी - बडी जीभ की वही कसम, "जनता,सचमुच ही, बडी वेदना सहती है।" "सो ठीक,मगर,आखिर,इस पर जनमत क्या है?" 'है प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है?" मानो,जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं, जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में; अथवा कोई दूधमुंही जिसे बहलाने के जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में। लेकिन होता भूडोल, बवंडर उठते हैं, जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढाती है; दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो, सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। हुंकारों से महलों की नींव उखड़ जाती, सांसों के बल से ताज हवा में उड़ता है, जनता की रोके राह,समय में ताव कहां? वह जिधर चाहती,काल उधर ही मुड़ता है। अब्दों, शताब्दियों, सहस्त्राब्द का अंधकार बीता;गवाक्ष अंबर के दहके जाते हैं; यह और