मधुशाला - madhushala
॥हरिवंश राय बच्चन कृत मधुशाला॥ मृदु भावों के अंगूरों की आज बना लाया हाला प्रियतम, अपने ही हाथों से आज पिलाऊँगा प्याला पहले भोग लगा लूँ तेरा, फ़िर प्रसाद जग पाएगा सबसे पहले तेरा स्वागत, करती मेरी मधुशाला॥१॥ प्यास तुझे तो, विश्व तपाकर पूणर् निकालूँगा हाला एक पाँव से साकी बनकर नाचूँगा लेकर प्याला जीवन की मधुता तो तेरे ऊपर कब का वार चुका आज निछावर कर दूँगा मैं, तुझपर जग की मधुशाला॥२॥ भावुकता अंगूर लता से खींच कल्पना की हाला कवि साकी बनकर आया है भरकर कविता का प्याला कभी न कण- भर ख़ाली होगा लाख पिएँ, दो लाख पिएँ! पाठकगण हैं पीनेवाले, पुस्तक मेरी मधुशाला॥३॥ मदिरालय जाने को घर से चलता है पीनेवाला ' किस पथ से जाऊँ? ' असमंजस में है वह भोलाभाला अलग- अलग पथ बतलाते सब, पर मैं यह बतलाता हूँ - ' राह पकड़ तू एक चला चल, पा जाएगा मधुशाला॥४॥ चलने ही चलने में कितना जीवन, हाय, बिता डाला! ' दूर अभी है ' , पर, कहता है हर पथ बतलानेवाला हिम्मत है न बढ़ूँ आगे, साहस है न फ़िरूँ पीछे किंकतर्व्यविमूढ़ मुझे कर दूर खड़ी है मधुशाला॥५॥ मुख से तू अविरत कहता जा मधु, मदिरा, ...